चुनौती
1992 में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (एनएसीपी) की शुरुआत के बाद से एचआईवी-एड्स से पीड़ित लोगों की संख्या में आई भर गिरावट के बावजूद भारत अभी भी दुनिया में सबसे बड़ी एचआईवी महामारी में से एक था| भारत में एचआईवी महामारी कुछ ख़ास तबकों के बीच ज्यादा फैली हुई थी| एचआईवी जैसी ख़तरनाक और जटिल बीमारी विशेष रूप से यौन कर्मियों, समलैंगिक पुरुषों के बीच असुरक्षित यौन संबंधों और नशीली दवाओं के इंजेक्शन के कारण फैल रही थी| भारत का बचाव कार्यक्रम कुछ लक्षित पहलों और जनता की सहभागिता के साथ उनके बीच व्यवहार परिवर्तन को बढ़ावा देने पर आधारित था| भारत ने अपने लक्षित हस्तक्षेपों के ज़रिए यूएनएड्स (एचआईवी/एड्स पर संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रम) के 90-90-90 लक्ष्यों (90 प्रतिशत एचआईवी संक्रमितों का आधिकारिक परीक्षण, एचआईवी संक्रमण के 90 प्रतिशत असंदिग्ध मामलों में एंटी-रेट्रोवायरल थैरेपी (आर्ट) अपनाना , और उपचार के बाद 90 प्रतिशत लोगों के भीतर वायरस के लक्षणों का लगातार शमन करना) को प्राप्त करने और 2030 तक एड्स का सफ़ाया करने पर ध्यान केंद्रित किया| भारत के एचआईवी नियंत्रण कार्यक्रमों की ये विशेषता है कि वह लक्षित आबादी के कुछ लोगों की सहभागिता के ज़रिए अपने कार्यक्रमों के लक्ष्यों को प्राप्त करने पर आधारित है| हालांकि, इन कार्यक्रमों को काफ़ी सारे अवरोधों का सामना करना पड़ा| इन लक्षित कार्यक्रमों से जुड़ी सबसे बड़ी कमी यह रही कि वह एक ऐसे पुराने मॉडल पर आधारित था, जो कम जोख़िम और न्यूनतम संक्रमण के ख़तरे वाली एक स्थिर आबादी पर केंद्रित था| जिसके कारण अधिक जोखिमवाले नए समूहों, जिन तक पहुंचना काफ़ी कठिन था, के बीच कार्यक्रम का विस्तार नहीं हो पाया| इसके अतिरिक्त, एंटी-रेट्रोवायरल थैरेपी की पहुंच तक विस्तार बेहद सीमित था और इसलिए उपचार से जुड़े लक्ष्यों को हासिल करने में भारत असफ़ल रहा|