भारत में पर्यावरण में आने वाली विकृति सकल घरेलू वार्षिक उत्पादन का 5.7% प्रतिशत खर्च करती है, जिसमे उल्लेखनीय रूप से कमी लाई जा सकती है ।
नई दिल्ली, 17 जुलाई, 2013 – भारत अपनी औसत सकल वार्षिक उत्पादन दर के 0.02% से 0.04% तक के न्यूनतम व्यय पर पर्यावरण में आने वाली विकृति (बिगाड़) में कमी लाने के लिए रणनीतियां बनाकर हरित संवृद्धि को वास्तविकता में बदल सकता है। विश्व बैंक द्वारा आज यहां जारी की गई एक नई रिपोर्ट के अनुसार ऐसा करने से भारत को भविष्य में पर्यावरण की व्यावहारिकता को ख़तरे में डाले बिना अपनी आर्थिक संवृद्धि की तेज़ रफ़्तार को बनाए रखने में मदद मिलेगी।
”डायग्नॉस्टिक असेसमेंट ऑफ़ सलेक्ट इन्वाइरनमेंटल चैलेंजेस इन इंडिया” शीर्षक रिपोर्ट भारत में पर्यावरणीय विकृति का अब तक का पहला राष्ट्र-स्तरीय आर्थिक मूल्यांकन है। इसमें पर्यावरण के स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधनों को पहुंचने वाली भौतिक तथा मौद्रिक (मॉनिटरी) हानि का; आर्थिक संवृद्धि और पर्यावरणीय व्यावहारिकता के बीच दुविधा का विश्लेषण किया गया है; तथा भारत में जैवविविधता तथा पारिस्थितिकी प्रणाली (इकोसिस्टम) द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सेवाओं का मूल्यांकन सुलभ कराया गया है।
रिपोर्ट के लेखकों द्वारा किए गए मूल्यांकन के अनुसार भारत में पर्यावरणीय विकृति पर आने वाली वार्षिक लागत लगभग 3.75 ट्रिलियन रुपये (80 अरब डॉलर) बैठती है, जो देश के सकल घरेलू उत्पादन के 5.7% के बराबर है। इसमें जीवाश्म ईंधन (फ़ॉसिल फ़्यूल) के जलने से होने वाले पार्टिकिल प्रदूषण (पीएम10) पर ध्यान दिया गया है, जिसका स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, जिस पर आने वाली लागत सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 3 प्रतिशत बैठती है, जिसके साथ-साथ स्वच्छ जल की आपूर्ति, स्वच्छता तथा स्वास्थ्य तक पहुंच न हो पाने और प्राकृतिक संसाधनों के घटते जाने से भी हानि होती है।
इसमें बाहरी (आउटडोर) वायु प्रदूषण के प्रभाव का अंश सबसे ज़्यादा (1.7%) है और इसके बाद अंदरूनी (इन्डोर) वायु-प्रदूषण की बारी आती है, जिसका अंश कम (1.3%) है। आउटडोर/इन्डोर प्रदूषण पर आने वाली ऊंची लागत बुनियादी रूप से युवा और उत्पादन् में लगी शहरी आबादी के पार्टिकुलेट मैटर के प्रदूषण का शिकार होने से जुड़ी है, जिसका परिणाम हृदय और फेफड़ों से सम्बंधित (कार्डियोपल्मनरी) और दीर्घ प्रतिरोधक (क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी) बीमारियों का शिकार हो जाने से वयस्कों के बीच ऊंची मृत्यु दर के रूप में निकलता है। इसके अलावा, रिपोर्ट में कहा गया है कि अनियमित जलापूर्ति, सफ़ाई और स्वास्थ्य-संबंधी देखभाल का अभाव होने से पैदा होने वाली बीमारियों का परिणाम पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों को भुगतना पड़ता है। देश में बच्चों की मृत्यु दर के लगभग 23% को पर्यावरण में आने वाली विकृतियों के साथ जोड़ा जा सकता है।
विश्व बैंक के भारत-स्थित कंट्री निदेशक ओन्नो रुह्ल ने कहा, “अनेक देशों की तरह भारत में भी संवृद्धि बनाम पर्यावरणविद् विषय पर चल रही है। इस रिपोर्ट में सुझाया गया है कि ऐेसे कम खर्चीले विकल्प मौजूद हैं, जिनकी मदद से संवृद्धि-संबंधी दीर्घकालिक उद्देश्यों के साथ समझौता किए बिना पर्यावरण को पहुंचने वाली क्षति में उल्लेखनीय रूप से कमी लाई जा सकती है। ऐसा करने पर आने वाले व्यय को आगे चलकर न केवल आसानी से उठाया जा सकेगा, बल्कि इसके परिणामस्वरूप होने वाले स्वास्थ्य और उत्पादकता-संबंधी उल्लेखनीय लाभों से उक्त व्यय की भरपाई भी हो सकेगी।”
रिपोर्ट में कहा गया है कि इस समय कदम न उठाने पर दीर्घकालिक उत्पादकता भी प्रभावित हो सकती है और साथ ही भारत की आर्थिक संवृद्धि की संभावनाएं भी।
विश्व बैंक के वरिष्ठ पर्यावरण-अर्थशास्त्री और रिपोर्ट के लेखकों की टीम के प्रमुख मुत्थुकुमार एस. मणि ने कहा, “अभी तरक्की और बाद में सफ़ाई करना भारत के लिए आगे चलकर पर्यावरण की दृष्टि से व्यावहारिक नहीं होगा। हमें विश्वास है कि लो-इमिशन और संसाधनों की दृष्टि से अर्थव्यवस्था को हरित बनाना सकल घरेलू उत्पादन के लिहाज़ से बहुत कम व्यय पर संभव है।”
हरित संवृद्धि (ग्रीन ग्रोथ) सस्ती है
उक्त अध्ययन में कई परिदृश्यों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है कि पार्टिकुलेट इमिशन में 2030 तक 10% की कमी होने से सकल घरेलू उत्पादन में थोड़ी कमी आ जाएगी, जो सकल घरेलू उत्पादन में सामान्य की तुलना में मात्र 0.3% के बराबर होगी। दूसरी ओर, पार्टिकुलेट इमिशन में 30% की कमी होने से सकल घरेलू उत्पादन में लगभग 97 अरब डॉलर या 0.7% की कमी आ जाएगी और इसका संवृद्धि की दरों पर बहुत थोड़ा ही असर पड़ेगा।
दोनों ही परिस्थितियों में स्वास्थ्य-संबंधी उल्लेखनीय लाभ होंगे। स्वास्थ्य को पहुंचने वाली हानि के घट जाने से 30% की कमी होने पर 105 अरब डॉलर और 10% की कमी होने पर 24 अरब डॉलर के बीच बचत होगी। इससे काफी हद तक सकल घरेलू उत्पादन में अनुमानित हानि की भरपाई हो जाती है।
इस रिपोर्ट में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि हरित संवृद्धि को मापा जा सकता है और यह आवश्यक है, क्योंकि भारत अनोखी जैवविविधता और पारिस्थतिकी प्रणालियों (इकोसिस्टम्स) का प्रुख स्थान (‘हॉट स्पॉट’) है। इस अध्ययन में पहली बार भारत में विभिन्न बाइओम्स से मिलने वाली इकोसिस्टम सेवाओं के मूल्य का विस्तृत निर्धारण किया गया।
संतुलित अनुमानों के आधार पर यह सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 3% से 5% बैठता है। मुत्थुकुमार एस. मणि ने कहा, “संवृद्धि के रुढ़िवादी उपायों में पर्यावरण पर आने वाली लागत पर ध्यान नहीं दिया जाता, जिन्हें संवृद्धि की मौजूदा तीव्र दरों पर विशेष रूप से बहुत अधिक पाया गया है। आज इकोसिस्टम सर्विसेज़ के रूप में प्राकृतिक पूंजी के उल्लेखनीय अंशदान का अनुमान लगाने के साधन भी मौजूद हैं। इसलिए, पर्यावरणीय लागत और सेवाओं आर्थिक संवृद्धि के सूचकांक के तौर पर हरित सकल घरेलू उत्पादन का अनुमान लगाना आवश्यक है।”