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मुख्य कहानी5 दिसंबर, 2024

हिमाचल प्रदेश में सेब की खेती को मिल रहा बढ़ावा

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मुख्य बातें

  • वर्ष 1950 में हिमाचल प्रदेश में 400 हेक्टेयर ज़मीन पर सेब के बाग थे । वर्ष 2023 तक ये बढ़ कर 1,15,680 हेक्टेयर में फैल गए थे । हिमाचल की 70 फ़ीसदी जनता खेती का काम करती है। राज्य के बागबानी उत्पाद का 80 फ़ीसदी सेब से आता है ।
  • इस महत्वपूर्ण बढ़ोतरी के बावजूद, सेब की खेती को चुनौतियों का सामना करना पड़ा जिनमें किसानों को सीमित मदद और निजी क्षेत्र की भागीदारी की कमी शामिल थे ।
  • विश्व बैंक समर्थित हिमाचल प्रदेश बागबानी विकास प्रॉजेक्ट ने राज्य के किसानों को फल उगाने के तरीके को बदलने में मदद की है । इस प्रॉजेक्ट ने सीधे तौर पर किसानों समेत एक लाख 34 हज़ार लोगों को सशक्त किया । इनमें वॉटर यूज़र्स एसोसिएशन के सदस्य और उद्यमी शामिल थे और 34 प्रतिशत उद्यमों की मिलकियत औरतों की थी । कृषि संबंधी उद्यमों, जैसे फलों की नर्सरी, मधुमक्खी पालन और फ़्रूट प्रोसेसिंग में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए 80 से ज़्यादा कृषि उद्यमियों (कुल का लगभग 30-35 प्रतिशत) को निवेश के बराबर अनुदान (ग्रांट) मिला ।

पहाड़ों की स्वच्छ, तीखी ठंडी हवा वाला, उत्तर भारत का हिमाचल प्रदेश राज्य देश का “ऐप्पल स्टेट” कहलाता है ।

सेब की बागबानी में जुटे एक नौजवान दक्ष चौहान विस्तार से बताते हैं, “सेब की खेती ही हमारी जीविका का साधन है।”  वो कहते हैं,  “मेरे दादा के समय में इस पूरे क्षेत्र के लोग बहुत ग़रीब थे । सेब की खेती ने हमारा जीवन सुधार दिया।”

लगभग सौ साल पहले, जब से हिमाचल प्रदेश में सेब की खेती शुरू की गई, तब से राज्य की अर्थव्यवस्था सेब पर निर्भर है। राज्य में खेती की कुल ज़मीन 6.15 लाख हेक्टेयर है और उसमें से लगभग दो लाख में फल के बागान हैं । इसमें से लगभग 1.15 हेक्टेयर ज़मीन में सेब की खेती होती है ।

लेकिन समय के साथ सेब की फ़सल को कई चनौतियों का सामना करना पड़ा । ये चुनौतियां थीं मौसम का पूर्वानुमान के मुताबिक न होना, कम फ़सल देने वाले पुराने बाग, खेती के पारंपरिक तरीके और उचित सिंचाई सुविधाओं का अभाव जिनके कारण कृषि से होने वाली कमाई कम थी, ख़ास तौर पर कम ज़मीन पर खेती करने वाले छोटे किसानों के लिए । ग्राहक की पसंद भी बदल रही है और उसका झुकाव आयात किए जाने वाली किस्मों की तरफ़ है जिससे छोटे किसान साल दर साल नुकसान के चक्कर में फंस गए हैं ।

वर्ष 2016 में हिमाचल प्रदेश में फिर से उस पथ-प्रदर्शक वाली ऊर्जा सुलगी जिससे सेब पहली बार हरे-भरे पहाड़ों में आए थे । उसी उर्जा ने राज्य को असल में भारत में सेब की खेती में अग्रणी बना दिया था ।

विश्व बैंक की हिमाचल प्रदेश बागबानी विकास प्रॉजेक्ट की मदद से राज्य ने किसानों के फल उगाने के तरीके को पूरी तरह बदलने का काम किया है ।  इसमें कृषि की पुरानी और नई परंपराओं का मिश्रण, पौध लगाने के नए पदार्थ, कृषि में आधुनिक विधि और तकनीक के साथ-साथ भंडारण, प्रसेसिंग और मार्कीटिंग की सुविधाओं को विकसित करना शामिल था, जिससे किसान अपनी फ़सल की बेहतर कीमत वसूल सके।

छह साल बाद इसके नतीजे सामने आने लगे हैं।

इस प्रॉजेक्ट के तहत छह ज़िलों में कुल 12,400 किसानों की सदस्यता वाली 30 किसान उत्पादक कंपनियों को स्थापित करने में मदद की गई । सदस्यों में से 27 फ़ीसदी महिलाएँ थीं । इन कंपनियों ने सेब की ग्रेडिंग यानी उसके आकार और गुणवत्ता के मुताबिक छंटनी और फिर उसकी पैकेजिंग, फ्ऱूट प्रोसेसिंग, व्यापार और कोल्ड स्टोरेज में भंडारण जैसे कार्यों को अंजाम दिया । वर्ष 2022-23 में इन कंपनियों के काम की कुल कीमत लगभग छह करोड़ रुपए थी ।
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सेब की खेती को कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों तक पहुँचाना

राज्य की कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों में पारंपरिक तौर पर सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं । अब वहाँ कुछ ज़्यादा तापमान के लिए उपयुक्त सेब की नई किस्मों की खेती शुरु की गई है ।

उदाहरण के तौर पर सोलन ज़िले के 47 वर्षीय राजेश कुमार ने सब्ज़ियाँ उगाने की जगह नई किस्म के ‘लो चिल’ सेब उगाने शुरु किए हैं। कोठी द्वारा नामक गांव के इस नौजवान किसान ने बताया, “मैं अपने पिता की तरह अपनी एक एकड़ ज़मीन पर टमाटर और सब्ज़ियां उगाता था ।  सब्जियां उगाकर होने वाली आमदनी केवल उतनी ही थी कि बस परिवार मात्र जीवित रह सकता था। हर साल हमें जीव-नाशक और फ़ंजीसाईड पर पैसे ख़रचने पड़ते थे । सिंचाई एक अलग मसला था।”

इन चुनौतियां का सामना करते हुए राजेश हर सार अपनी एक एकड़ ज़मीन से केवल 50 से 60 हज़ार रुपए ही कमा पाता था । अब उसकी कमाई आठ गुना हो गई है और उसे अपने सेब के बाग से हर साल लगभग चार से पांच लाख रुपए प्रति बीघा कमाई होती है ।  राजेश का चेहरा तब संतुष्टी भरी मुस्कुराहट से खिल उठता है, जब वो बताते हैं, “ मैंने पिछले पांच साल में सेब बेचकर जितनी कमाई की है, उतनी मैंने टमाटर बेचकर पिछले 15 साल में की थी।”

आने वाले वर्षों में यदि बुरे मौसम से नुकसान नहीं हो, तो राजेश को उम्मीद है कि वह अपनी वर्तमान आय से तीन गुना, लगभग 14-15 लाख रुपए प्रति बीघा कमा पाएगा ।

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कम भूमि पर ज़्यादा पेड़ों की खेती

सेब की नई किस्मों के कारण कम भूमि पर ज़्यादा पेड़ों की खेती हो सकती है । ये पेड़ बहुत ऊँचे नहीं होते, 8 से 10 फ़ुट तक लंबे होते हैं और इनकी शाखाएँ भी उतना नहीं फैलतीं जितनी पुरानी किस्मों के पेड़ों की फैलती थीं। इसलिए उसी भूमि पर ज़्यादा संख्या में पेड़ लगाए जा सकते हैं।

सोलन ज़िले के धारो की धार नामक गांव के करण सिंह बताते हैं, “इससे पहले सेब से मेरी कमाई लगभग शून्य थी । अब मैं एक बीघा में लगभग 150 बौनी किस्म के सेब के पेड़ लगा पाता हूँ, जबकि पुरानी किस्म के केवल 20 से 30 पेड़ ही लगा सकता था।”

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कम समय में ज़्यादा फल देने वाली किस्में

सेब की नई किस्में पर फल जल्द ही लग जाता है । करण बताते हैं, “वो पौध लगाने के केवल तीन से चार साल में ही फल देना शुरु कर देते हैं जबकि पारंपरिक सेब की किस्मों को छह से सात साल लगते थे। ”  इससे किसान को काफ़ी जल्दी लाभ मिलने में मदद मिलती है।

इतना ही नहीं, ये पेड़ ज़्यादा फल भी देते हैं । हर पेड़ औसत 15 से 20 किलों फल देता है. करण हर साल औसत 10 से 11 लाख रुपए कमाता है ।

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सिंचाई समस्याओं का समाधान

प्रॉजेक्ट के द्वारा एक जैसे  हाईड्रोलॉजिकल क्षेत्र के किसानों को कई समूह बनाने में मदद की गई । हाईड्रोलॉजी के ज़रिए पथ्वी पर पानी की गति, वितरण और प्रबंधन का अध्ययन होता है। इन समूहों को पूरे साल सिंचाई का पानी उपलब्ध कराया गया । ऐसा ऊपरी पहाड़ियों के पानी को उनके खेतों के पास बनाए गए नए टैंको तक पहुँचा कर किया गया । उनकी फ़सल की बारिश पर निर्भरता और पानी के संसाधनों की मौसमी उपलब्धता को देखते हुए, इससे किसानों को वो राहत मिली जिसकी उन्हें सख़्त ज़रूरत थी ।

टेरेस खेतों यानी सीढ़ीदार खेतों में पानी की निकासी के अभाव में जलभराव की समस्या एक चुनौती थी । इससे मिट्टी में मौजूद गुणवत्ता वाले पोषक तत्व ख़त्म होते थे और पेड़ों पर कीटों और बीमारियों का ख़तरा मंडराता था ।  इसका समाधान पहाड़ी इलाकों के लिए उपयुक्त सिंचाई तकनीकों को अपनाकर और किसानों को ड्रिप सिंचाई यानी बूँद बूँद सिचाई की तकनीक में प्रशिक्षित करने से किया गया ।

लगभग 260 छोटी सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण किया गया जिनसे और भूमि को खेती के लायक बनाया गया ।  सभी कदम मिलाकर, अक्तूबर 2024 में जब ये प्रॉजेक्ट पूरी हुई, तब सिंचाई सुविधाओं की मदद से 3100 हेक्टेयर अतिरिक्त ज़मीन पर सेब की खेती होने लगी और दस हज़ार नौ सौ हेक्टेयर के मौजूदा बागान फिर से हरे-भरे हो गए थे।

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देश भर में फ़सल की मार्कीटिंग

फ़सल की पैदावार में नुकसान को घटाने और किसानों को उपज का बेहतर मूल्य दिलाने के लिए तीन नई सब्ज़ी मंडियाँ बनाई गईं और छह अन्य को उपग्रेड किया गया । इन मंडियों के ज़रिए देश के विभिन्न क्षेत्रों के किसान और व्यापारियों को एक दूसरे से आदान प्रदान की एक जगह मिली ।  इन टर्मिनल्स यानी जगहों ने केवल 2024-2025 में ही दस करोड़ 40 लाख रुपए का राजस्व कमाया ।  सरकार की ई-मार्केट प्लेस ऐप ने किसानों के लिए देश के अलग अलग क्षेत्रों में फ़सल की कीमत के बारे में पता लगाना आसान बना दिया ।  इसने करण और राजेश, दोनों के लिए अपनी  फ़सल को दूर स्थित राजस्थान के जयपुर में बेचना आसान बना दिया है, जहाँ उन्हें फसल के अच्छे दाम मिल रहे हैं ।

हिमाचल प्रदेश की बागबानी प्रॉजेक्ट के निर्देशक सुदेश कुमार मोख्टा बताते हैं, ‘’अच्छी उत्पादकता वाली और पर्यावरण के हिसाब से टिकाऊ, सेब की खेती, अभी और भविष्य में किसानों की खुशहाली का पुख़्ता आधार बनेगी। ‘’

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अंतरराष्ट्रीय ज्ञान उपलब्ध कराना

इस प्रॉजेक्ट के ज़रिए स्थानीय किसानों को ताज़ा जानकारी देने और जैविक पदार्थों को अपग्रेड करने के लिए अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञता उपलब्ध कराई गई । न्यूज़ीलैंड और नीदरलैंड्स के विशेज्ञों ने मिट्टी का आकलन किया और उस क्षेत्र में धरती के तल की जांच कर के किसानों को सलाह दी ।

एक किसान, करण ने इस प्रॉजेक्ट से बहुत कुछ सीखा है जिससे उसे ज़मीनी स्थिति में बड़ा अंतर लाने में मदद मिली है । उसने विस्तार से बताया, “विशेषज्ञों ने हमें सही तरीके से वृक्षारोपण यानी पेड़ लगाने, उनकी छंटाई करने, उन्हें उचित ख़ुराक और पानी देने का प्रशिक्षण दिया ।”

हिमाचल के किसानों को नवीनतम तकनीकों में प्रशिक्षित करने वाले, न्यूज़ीलैंड की प्लांट एंड फ़ूड रिसर्च के एक विज्ञानिक डेविड मैन्कटेलो बताते हैं, “न्यूज़ीलैंड में जो कुछ सीखने में हमें बीस साल लगे, उसे अब हिमाचल में कुछ ही सालों में लागू किया जा सकता है।” वे हिमाचल के किसानों के प्रगतीशील स्वभाव की सराहना करते हैं ।

हिमाचल प्रदेश के नौनी स्थित डॉक्टर वाई एस परमार बागबानी और वनविज्ञान विश्वविद्यालय ने नई जानकारियों को फैलाने में एक मुख्य भूमिका निभाई । बड़े पैमाने पर सेब की खेती को विकसित करने और जारी रखने के लिए नमूने या प्रयोग के तौर पर ज़मीन के टुकड़े तैयार किए गए । वहाँ कृषि की ऐसी कार्य प्रणाली विकसित की गई जो राज्य की मिट्टी और मौसम जैसी परिस्थियाँ के अनुकूल थी.  किसानों को सिखाया गया कि उन्हें कैसे उस कार्य प्रणाली को लागू करना है । कुल मिलाकर इस प्रॉजेक्ट के तहत  90 हज़ार किसानों को प्रशिक्षण दिया गया ।

विश्व बैंक की प्रॉजेक्ट का नेतृत्व करने वाले टास्क टीम लीडर बेकजोड शामसीव विस्तार से बताते हैं, “सेब की खेती को बढ़ावा देने में हिमाचल प्रदेश का पथ-प्रदर्शक काम, केवल वर्तमान और भावी पीढ़ियों के किसानों को ही लाभ नहीं पहुँचाएगा बल्कि बाकी के देश के लिए भी मार्ग दर्शक बनेगा ।

भारत के जल-वायु और भू-भाग की विशाल विविधता को देखते हुए फलों की आधुनिक खेती को अन्य राज्यों में फैलाने की भी अत्यधिक संभावना है । इससे केवल स्थानीय बाज़ार के लिए ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए भी फल उगाए जा सकते हैं ।”

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