दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के ईरोड़ में, सुबीथा बानो सड़क के किनारे ठेला लगाती है। प्यार से भाई अम्मा के नाम से जानी जाती सुबीथा हर रोज़ समयानुसार सुबह 10 बजे दो कनस्तर बिरयानी लेकर काम पर पहुँच जाती है। दिन अच्छा हो तो वो सारा सामान दोपहर बारह बजे तक बेच लेती है।
फिर वो अपने पड़ोस में स्थित शराब की दुकान में आने वाले पुरुषों के लिए बकरे या मुर्गे के मांस की मसालेदार करी बनाती है। फिर वह अंडे ले आती है और शाम में आने वाले ग्राहकों के लिए ऑमलेट बनाती है। रात साढ़े आठ बजे वो 700-800 रुपए मुनाफ़ा कमाकर अपने बेटे के साथ घर लौट जाती है और अगले दिन सबह फिर काम शुरु करती है।
अच्छी समझ-बूझ वाली यह उद्यमी अब अपने ठेले का विस्तार करके, और लोगों को काम पर लगाकर और बिक्री का सामान बढाकर अपनी आमदनी को दोगुना करना चाहती है। इसके लिए उसे एक लाख रुपए का निवेश करना होगा।
आम तौर पर कर्ज़ की आवश्यकता पड़ने पर ऐसी परिस्थितियों में ग्रामीण महिलाएँ अपने स्थानीय स्वयम् सहायता समूह (एसएचजी) से मदद की गुहार लगाती हैं क्योंकि औपचारिक वित्तीय संस्थाओं से अभिलाषी महिला उद्यमियों को लोन मिलना आसान नहीं है। भाई अम्मा को तो कर्ज़ लेने की सीमा की समस्या भी आएगी क्योंकि ये रकम उनके स्वयम् सहायता समूह के लिए बहुत बड़ी है।
भारत सरकार ने बदलाव और विकास को बढ़ावा देने में महिला उद्यमियों के महत्व को मानते हुए 2018 में उनकी मदद के लिए कई प्रोग्राम शुरु किए। लेकिन ज़्यादातर नीतिगत पहल पहली पीढ़ी की महिला उद्यमियों को व्यवसाय स्थापित करने में मदद देने पर ध्यान केंद्रित करती हैं । या फिर, ये नीतियां पांच करोड़ से ज़्यादा टर्नओवर यानी कुल बिक्री वाले माइक्रो, लघु या मीडियम उद्योगों को काम में विस्तार लाने के समर्थ बनाती हैं ।
भाई अम्मा जैसे उद्यम जिनका वार्षिक मुनाफ़ा तीन लाख और तीस लाख रुपए के बीच है, वो इन दोनों श्रेणीयों के बीच आते हैं। इसलिए महिलाओं के विकास उन्मुख उद्यम (जीओडब्ल्युई) के नाम से जाने जाते इस विशेष खंड का विस्तार कर, उसे विकसित करके, उसके ज़रिए और राज़गार पैदा किए जा सकते हैं। लेकिन ये मुख्यधारा के उद्यमों की श्रेणियों में नहीं पाया जाता और इस पर कोई ख़ास अध्ययन भी नहीं हुआ है।