सुबह के चार बजे हैं और बाहर अभी भी अंधेरा है लेकिन भारत के पूर्वी राज्य बिहार के बागमंझुआ गांव की लीला देवी उठ गई हैं। जैसे ही सूरज निकलता है, वह अपने परिवार के लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाने में और अपने तीन बच्चों को स्कूल भेजने में जुट जाती हैं। इन सारे काम को निपटाकर लीला अपने घर से 7 किमी दूर भोजपुर जिले के कोईलवर मानसिक शरण अस्पताल के लिए निकल पड़ती है, जहां वह अस्पताल के किचन 'दीदी की रसोई' में काम करती हैं।
घर से वह अपनी पारंपरिक साड़ी में निकलती हैं, और अस्पताल पहुंच कर वह अपनी साड़ी के ऊपर सफ़ेद कोट पहनती हैं, सिर को एक पारदर्शी टोपी से ढंकती हैं, और उसी के साथ एक भूरे रंग का एप्रन भी पहनती हैं। रसोई में उनका काम सुबह 6:30 बजे से शुरू होता है और वह दिन भर के मेनू के हिसाब से अस्पताल के मरीजों और कर्मचारियों के लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाने की तैयारी में जुट जाती हैं।
लीला देवी बताती हैं, "मेरे पति एक किराने की दुकान में काम करते हैं, और सिर्फ उनकी कमाई से घर का खर्चा चलाना आसान नहीं है। 2022 में, जब मेरे गांव के स्वयं-सहायता समूह के किसी व्यक्ति ने मुझे दीदी की रसोई के बारे में बताया तो पहले तो मैं हिचकिचा रही थी। मुझे किसी कैंटीन या रेस्तरां या ग्राहकों के साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं था। लेकिन परिवार की सहायता से मैंने सोचा कि चलो कोशिश करते हैं। "
लीला देवी दूसरी महिलाओं के साथ दीदी की रसोई और कैंटीन में काम करती हैं, जहां हर रोज़ 250 से अधिक लोग खाना खाते हैं। इस कैंटीन को 26 महिलाएं संभालती हैं, जो दो पारी में काम करती हैं और अस्पताल के मरीजों, परिचारकों, कर्मचारियों और वहां आने वाले ग्राहकों के लिए खाना बनाती हैं।
वह मुस्कुराते हुए बताती हैं, "दीदी की रसोई में काम करने से पहले मैं एक साधारण महिला थी; मेरी अपनी कोई पहचान या कोई ख़ास बात नहीं थी। दीदी की रसोई ने मुझे आत्म-सम्मान की भावना दी है। मुझे अब अपने पति से पैसे मांगने नहीं पड़ते। " लीला देवी, जिन्होंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, अब हर महीने इस नौकरी की बदौलत 8,000-10,000 रुपये कमाती हैं।