35 वर्षों राम किशोर यादव भारत के मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के कुपवा गांव से सटे एक जंगल में जाते थे। सुबह-सुबह सूरज की रोशनी पेड़ों की घनी कतारों से छनती हुई पीले महुआ फूलों पर पड़ती, जिससे वे चारों तरफ़ लगे जालों पर तारों की तरह जगमग करते हुए दिखाई पड़ते थे। वह दोपहर में उन फूलों को इक्कठा करने जंगल की ओर अपने उन आठ पेड़ों की ओर जाते थे, जिसे उनके परिवार ने लगाया था। जंगल से महुआ के फूलों को चुनने के बाद वह उन्हें शराब निर्माता कंपनियों को उनके लोकप्रिय उत्पाद की सामग्री के तौर पर बेच देते थे।
यादव बताते हैं, "हर साल, मार्च और अप्रैल के महीने में महुआ के फूल जंगल में गिरते थे। इसलिए, हम पेड़ों के नीचे थोड़ी-थोड़ी आग जलाकर वहां के आस-पास की जमीन साफ़ कर देते थे ताकि हम उन्हें आराम से इकट्ठा कर सकें।"
दुर्भाग्य से इस परंपरा के चलते न सिर्फ जंगल की प्राकृतिक वनस्पतियां नष्ट हुईं, बल्कि शुष्क मौसम के चलते ये आग बार-बार पूरे जंगल को अपने लपेटे में ले लेती, जिसके कारण ढेरों पेड़ और जंगली जानवर नष्ट हो गए।
2020 में, मध्य प्रदेश वन विभाग ने आग को रोकने और जैव विविधता के संरक्षण के लिए गांव वालों को प्रोत्साहित करने के लिए विश्व बैंक के सहायता से पारिस्थितिकी तंत्र सेवा सुधार परियोजना की शुरुआत की, जिसके तहत गांव वालों को मुफ़्त में जाल दिया गया। इन जालों के प्रयोग का विचार समुदायवासियों ने ही दिया था।
यादव गर्व से बताते हैं, "जब से वन विभाग ने हमें महुआ के फूलों को इकट्ठा करने के लिए जाल दिया है, तब से हमारी आय और भी ज्यादा बढ़ गई है क्योंकि उसकी पंखुड़ियां ज़मीन पर पड़े पत्तों और धूल से बच जाती हैं।"
मध्य भारत के पर्णपाती वनों और उसमें रहने जीव-जंतुओं पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है। जैसा कि मध्य प्रदेश के उत्तर बैतूल के जिला वन अधिकारी पुनीत गोयल बताते हैं, "पिछले कुछ सालों में जंगल में आग लगने की घटनाओं लगभग 95 फीसदी की कमी आई है। अगर जंगल में आग लगने की कोई छोटी सी भी घटना होती है, तो गांव वाले हमें तुरंत उसकी सूचना देते हैं, और आग को भी जल्दी ही बुझा दिया जाता है।" ऐसा अनुमान है कि पिछले दो सालों में जालों के उपयोग के कारण जंगल की क़रीब 18000 हेक्टेयर जमीन पर आग लगने की घटनाओं में कमी आई है।