अप्रैल 23, 2010 - यद्यपि भारत में मलेरिया का उन्मूलन लगभग पूर्ण हो चुका था, 1970 के दशक के उत्तरार्ध में यह अधिक तीव्रता से लौट आया। आज, मलेरिया तथा ज्ञात कारणों से होने वाली अन्य बीमारियाँ भारत में मृत्यु, विकलांगता तथा आर्थिक नुकसान का सबसे बडा कारण हैं, खास कर गरीबों में, जिनकी समयोचित एवं प्रभावकारी उपचार तक पहुँच अत्यंत सीमित है। छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं में मलेरिया के प्रति प्रतिकार-क्षमता अत्यंत कम होने की वजह से यह माता-मृत्यु, मृत शिशुओं का जन्म, नवजात शिशुओं का वजन अत्यधिक कम होना आदि का कारण बनता है। यही नहीं, 1980 के दशक से एक नए प्रकार का मलेरिया - प्लाज़्मोडियम फेल्सिपेरम (पीएफ) - भारत में तेजी से बढ रहा है, जो अधिक तीव्र तथा अक्सर प्राणघातक होता है।
2009 में भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा ने करीब 15 लाख मलेरिया की घटनाओं की जानकारी दी। इनमें से करीब आधी घटनाओं की वजह घातक पी. फेल्सिपेरम विषाणु था। परंतु, मलेरिया प्रभावितों की संख्या इससे कहीं अधिक है, क्योंकि एख बडी संख्या में मरीज सरकारी स्वास्थ्य सेवा का लाभ न लेकर निजी स्वास्थ्य सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं; उनकी संख्या की गणना नहीं की जाती। इसे ध्यान में रखते हुए विश्लेषकों का मानना है कि भारत में मलेरिया के रोगियों की संख्या 6 से 7.5 करोड प्रति वर्ष तक हो सकती है।
भारत के सर्वाधिक मलेरिया-ग्रस्त क्षेत्र उसके सबसे गरीब क्षेत्रों में से हैं। मलेरिया शहरी भागों में भी बढ रहा है, किंतु मलेरिया की करीब आधी घटनाएं उडीसा, झारखंड और छत्तीसगढ - जहाँ एक बडी संख्या में आदिवासी जनता दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में रहती है - में और पश्चिम बंगाल में हुई हैं। मलेरिया प्रभावित जिलों का दूरदराज में स्थित होना इस रोग के निदान और उपचार की एक बडी बाधा है।
सरकारी नीति का विकास
1953 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरु किया जो घरों का भीतर डीडीटी का छिडकाव करने पर केन्द्रित था। पाँच सालों में ही कार्यक्रम की वजह से मलेरिया की घटनाओं में आशचर्यजनक कमी देखने में आई। इससे उत्साहित होकर एक अधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) 1958 में शुरु किया गिया. इससे मलेरिया में और भी कमी आई और उसका मृत्यु की वजह बनना थम गया। लेकिन 1967 के बाद अति-आत्मसंतोष तथा मच्छरों द्वारा कीटनाशकों के तथा मलेरिया-रोधी दवाओं के प्रति प्रतिकार क्षमता उत्पन्न कर लेने के कारणों की वजह से देश भी में मलेरिया ने फिर सर उठा लिया।
1997 में भारत सरकार ने अपना लक्ष्य रोग के उन्मूलन से हटा कर उसके नियंत्रण पर केन्द्रित किया और कीटनाशकों के सार्वत्रिक छिडकाव को रोक कर चुनिंदा भीतरी जगहों पर छिडकाव शुरु किया। 2003 में राष्ट्रीय ज्ञात-कारण बीमारी नियंत्रण कार्यक्रम (एनवीबीडीसीपी) के तहत मलेरिया नियंत्रण को अन्य ज्ञात-कारण बीमारियों के साथ मिला लिया गया क्योंकि ऐसी सभी बीमारियों की रोकथाम के लिए एक ही रणनीति होती है जैसे रासायनिक नियंत्रण (उदा. दवाई का छिडकाव), वातावरण प्रबंधन, जैविक नियंत्रण (उदा. लार्वा, मछलियाँ), और निजी सुरक्षा उपाय (उदा. कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानियाँ)।
2005 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन भी शुरु किया, जिसके उद्देश्यों में शामिल है मलेरिया सहित ज्ञात-कारण बीमारियों पर नियंत्रण।
विश्व बैंक द्वारा मदद
मलेरिया पर काबू पाने के लिए प्रभावी सेवा विकसित करने के लिए विश्व बैंक भारत सरकार की पिछले एक दशक से सहयता कर रही है। 1997 तथा 2005 के मध्य आईडीए साख द्वारा अंशतः वित्तीय सहायता प्राप्त एक मलेरिया नियंत्रण परियोजना, चुनिंदा राज्यों तथा जिलों में लागू की गई थी। परियोजना सरकार द्वारा मच्छरों पर नियंत्रण के प्रयासों से हटकर उनके निवारण, जल्द निदान और उपचार के प्रयासों के समर्थन में कार्यरत थी। जहाँ भीतरी छिडकाव अधिक लक्ष्य-केन्द्रित एवं पर्यावरण संरक्षक विकल्पों वाला होना था वहीं लार्वा-भक्षक मछलियों तथा जैव लार्वानाशकों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया गया और कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानियों का इस्तेमाल बढा। परियोजना ने पहले के आदेश-आधारित नियंत्रण उपायों से हट कर समुदाय समावेशित तथा स्वामित्व आधारित उपायों को भी अपनाया।
परियोजना की समाप्ति पर जहाँ अधिकाँश परियोजनाओं में बीमारी की घटनोओं में कमी पाई गई (एनवीबीडीसीपी के मुताबिक भारत में मलेरिया की घटनाएं 1997 में 26.6 लाख से घट कर 2003 में 18.6 लाख रह गईं) वहीं यह भी स्पष्ट हुआ कि कार्यक्रम के संचालन में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है।
मलेरिया नियंत्रण के नए उपाय
2009 में भारत सरकार की नई राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण नीति के तहत मलेरिया निवारण में टिकाऊ कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानियों के इस्तेमाल से मजबूती लाई गई और त्वरित निदान उपकरण (आरडीके) एवं आर्टेमेसिनिन-आधारित संमिश्र उपचार (एसीटी) में प्रशिक्षित समुदाय स्वयंसेवियों (एनआरएचएम द्वारा चयनित आशा समूह) के ज़रिये घटना प्रबंधन का विस्तार किया गया।
यद्यपि आदर्श रूप से सभी बुखार वाले रोगियों का उपचार से पहले मलेरिया के लिए परिक्षण किया जाना चाहिए, पूर्व में प्रयोगशाला से दूरी की वजह से सभी रोगियों को इस बीमारी की आशंका से ही क्लोरोक्विन दे दी जाती थी। लेकिन इससे मलेरिया के विषाणु ने क्लोरोक्विन के प्रति प्रतिकार क्षमता पैदा कर ली और देश में फेल्सिपेरम मलेरिया बढने लगा।
भारत सरकर ने अब मलेरिया के इस पूर्वानुमान उपचार को बंद करने का नीतिगत फैसला लिया है। इस नीति के अनुसार मलेरिया के सभी संभावित रोगियों का रक्त परिक्षण किसी भी उपचार से पहले किया जाना चाहिये। जहाँ भी नतीजे 24 घटों में मिल सकते हों, वहाँ परिक्षण एक गुणवत्ता नियंत्रित प्रयोगशाला में सूक्ष्मदर्शी के ज़रिये किया जाए। ऐसा न हो सकने पर त्वरित निदान उपकरण का इस्तेमाल किया जाना चाहिये और स्वास्थ्य सेवा प्रदाता इस कार्य के लिए प्रशिक्षित हो।
सभी पुष्टिकृत तथा अजटिल फेल्सिपेरम की घटनाओं के लिए एसीटी उपचार को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। पहली तिमाही चल रही गर्भवती महिलाएं इसके लिए अपवाद हैं, जिन्हें क्विनाइन का उपचार मिलेगा।
कई रोगियों द्वारा निजी चिकित्सा लिए जाने के कारण यह आवश्यक है कि निजी क्षेत्र के लाभकारी तथा अलाभकारी संगठनों को भी राष्ट्रीय कार्यक्रम के कार्यान्वयन में शामिल किया जाए। जिनके पास आवश्यक प्रशिक्षण नहीं है, और प्रयोगशाला सुविधा नहीं है ऐसे निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं (औषधालय, दवा विक्रेता तथा अनधिकृत चिकित्सा देने वालों सहित) द्वारा राष्ट्रीय उपचार दिशानिर्देशों का पालन करना सुनिश्चित करने के लिए फ्रेंचाइज़ी या सामाजिक विपणन से जुडी हो सकने वाली प्रभावी कार्यपद्धतियाँ आवश्यक हैं। इसके तहत, आर्टेमेसिनिन के प्रति प्रतिकार क्षमता विकसित होना टालने के लिए भारत सरकार ने पिछले वर्ष इसके एकल उपचार पर रोक लगा दी है।
विश्व बैंक की राष्ट्रीय ज्ञात-कारण बीमारी नियंत्रण तथा पोलियो उन्मूलन मदद परियोजना (2008-2013), अन्य विकास भागीदारों के साथ इस नीति के कार्यान्वयन में, सेवा प्रदाय प्रणालियों को मजबूत बनाने में और नतीजों के मूल्यांकन में सरकार की मदद कर रही है। इसे 8 राज्यों के 93 सर्वाधिक प्रभावित जिलों में चरणबद्ध रूप से लागू किया जाएगा, जिससे 10 करोड लोगों को लाभ मिलेगा।